एक ही थाली के चट्टे-बट्टे : आखिर किसको दे जनता सरकार बनाने का मौका ?


कांग्रेस की सरकार को जनता ने देख लिया, इस से पहले भाजपा को भी देश की जनता ने देखा. सपा, बसपा, कौम्युनिस्ट का पुरे देश में विस्तार नहीं. राष्ट्रियस्तर पर और कोई दूसरी पार्टी का विकल्प नहीं........अगले चुनाव में जनता के सामने ये एक यक्ष प्रश्न के रूप में सामने आने वाला है. लेकिन ये भी है की इस तानाशाही सरकार को उसकी औकात नहीं दिखाई गयी तो वो अंग्रेजों की तरह भारत को चूसने से बाज नहीं आएगी. फिर इस यक्ष प्रश्न का अगले चुनाव में इस देश की जनता क्या जवाब दे और कैसे दे ?

कांग्रेस पार्टी ने अपना जलवा दिखाया और पहले के तरह ही देश में घोटालों का अंजाम दिया. अगर देखा जाए तो घोटाले और भ्रष्टाचार के पहले के सारे पुराने रेकॉर्ड कांग्रेस ने तोड़ दिए. जनता को धोखा दिया और उलुल-जुलूल तर्कों से जनता को बेवकूफ बनाने की नाकामयाब कोशिशें करती रहीं अपने कमियों को छुपाने के लिए. अंततः जब जनता ने क्रांति का एलान किया तो तानाशाही रवैये पर कांग्रेस उतर आई.

कांग्रेस में तानाशाही ये नयी बात नहीं है. सत्ता के लालच में कांग्रेस कुछ भी कर सकती है और अपने देश में अपने को राजा और जनता को भिखारी समझती है. अगर इतिहास देखें तो इंदिरा गाँधी के समय लगाया गया इमरजेंसी इसका स्पष्ट प्रमाण है. सरकार गिरने वाली थी, मामला न्यायालय में पहुंचा और न्यायालय ने इंदिरा गाँधी की सरकार को समय दिया की वो सभी कमियों को सुधार कर देश को विकास के रास्ते पर लायें. लेकिन इंदिरा गाँधी ने चाल चली, जिस दिन फैसला हुआ न्यायालय में उसी दिन रात को इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी की घोषणा कर दी.....एक तानाशाही रवैया का परिचय दिया और न्यायालय के न्यायाधीश भी हतप्रभ रह गए. नेताओं को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया और जनता की आवाज को पुलिस के हंटरों से चुप करा दिया गया. भारत जैसे लोकतंत्र में कांग्रेस ने उस समय इमरजेंसी लाकर एक तरह से हिटलरशाही और स्टालिनवाद का इतिहास रच डाला.

अगर देखा जाय तो कांग्रेस के सरकार में ही जन-क्रांतियाँ क्यूँ होती हैं ? जब लोकनायक जय प्रकाश ने क्रांति का बिगुल फूंका सरकार के विरुद्ध में तो उस समय भी कांग्रेस की सरकार थी और आज जब अन्ना हजारे ने जन-क्रांति की दुन्दुभी बजाई है तो आज भी सरकार कांग्रेस की ही है.

इस देश में कांग्रेस का विकल्प बीजेपी रहा है और बीजेपी का विकल्प कांग्रेस. ये दो राजनितिक दल ऐसे हैं जिन्होंने इस लोकतंत्र पर अपनी सत्ता की कुर्सी गरमाई है. जहां इस देश के लोकतंत्र पर कांग्रेस ने अपने तानाशाही पत्थर से प्रहार किया है वहीँ बीजेपी ने इस देश में साम्प्रदायिकता का प्रसार किया है. कांग्रेस की तरह बीजेपी भी अपना वोट बैंक बनाए बैठी है और अपने क्रियाकलापों से इस देश में साम्प्रदायिकता की मिसाल भी कायम कर चुकी है. इस पार्टी में एक ही नेता नहीं है बल्कि कई नेता हैं जो अपने आपको बीजेपी का प्रवक्ता समझते हैं और सांप्रदायिक वक्तव्य देकर इस देश के गंगा-जमुनी तहज़ीब को आहत करते रहे हैं. इस पार्टी में कई मौकापरस्त नेता है जो खुद के हित के लिए पार्टी हित को भी नुक्सान पहुंचाने से नहीं चुकते. सत्ता के लालच की तो बात है ही, इस पार्टी ने अपने आयिकौन कहे जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी तक को नहीं छोड़ा, आडवानी को प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब रच डाला और अटल जी के विरुद्ध षड्यंत्र रच डाला. अटल जी ने जब पार्टी के अंदरूनी लहर को भांपा तो उन्होंने अस्वस्थता का कारण बताकर राजनीती से ही संन्यास ले लिया. आज उस अटल बिहारी वाजपयी को मीडिया भी भुला चुकी है और पार्टी के लोग भी, क्यूंकि मीडिया भी देश के मुद्दों पर उनसे उनका विचार नहीं लेती. अटल बिहार वाजपेयी संसद में एक सांसद का नाम मात्र ही नहीं था बल्कि एक ऐसा व्यक्तित्व भी था जिसका लोहा विपक्ष भी मानता था.

देश की वर्तमान परिस्थिति की बात करें तो देश की जनता कांग्रेस के बाद बीजेपी को अपने विकल्प के रूप में देखेगी. लेकिन बीजेपी को वर्तमान स्थिति को देखना होगा की वो इस देश का बागडोर साम्प्रदायिकता के सहारे लेना चाहेगी, कुछ साम्प्रदायिक नेताओं के सहारे लेना चाहेगी या फिर एक असाम्प्रदायिक छवि जनता के सामने रखने का विश्वास जताएगी.

रही बात बसपा की तो यह पार्टी आज देश में अप्रचलन का शिकार है. अपने आप में सुप्रीमों के नाम से जाने जाने वाली मायावती अपने पार्टी के नेताओं तक की नहीं सुनतीं जनता की तो बात ही छोड़ दीजिये. फिलहाल इनके पत्थर-प्रेम से उत्तरप्रदेश की जनता आहत है और त्राहिमाम की स्थिति में है.

सपा की बात करें तो अमर सिंह के जाने के बाद यह पार्टी कमजोर हुयी है और अमर सिंह के रहते भी अमर सिंह के भरोसे ही जोड़-तोड़ की राजनीती से इसने सरकार बनाने की ख्याति अर्जित की है. देश में विस्तार इसका भी नहीं है और इतने बडे लोकतंत्र को चलाना भी इसके वश की बाहर की चीज है. साथ ही एक बात और ध्यान देने योग्य है की बाबरी मस्जिद ढाँचे को गिराने में जो मुख्य नायक की भूमिका में रहे, उस कल्याण सिंह को इस पार्टी ने आत्मसात करके मुस्लिम वोट बैंक को खो दिया है जो कभी इसका आधार हुआ करती थी.

कौम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह से बिखर चुकी है क्यूंकि इसको बांधे रखने वाले ज्योति बासु अब नहीं रहे. पार्टी में खुद ही कई मामलों में फूट है. वैसे भी राष्ट्रियस्तर पर इस पार्टी का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है और हमेशा यह पार्टी सरकार बनाने में एक सहयोगी से ज्यादा कुछ अधिक नहीं जान पड़ी है. यही कारण है की इस पार्टी को लोग "तम्बू वाला बम्बू" कहने से नहीं चुकते.

अब यहीं यक्षप्रश्न खड़ा हो जाता है की इस देश की सबसे बड़े राजनितिक दल के नाम से जाना जाने वाले कांग्रेस को जनता स्वीकारने को तैयार नहीं है, बीजेपी अपने पार्टी के कुछ साम्प्रदायिक नेताओं को बाहर रखने को तैयार नहीं है और बसपा, सपा और कौम्युनिस्ट जैसे अन्य पार्टी भी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं क्यूंकि राष्ट्रीयस्तर पर इनका कोई व्यापक अस्तित्व नहीं है.

ऐसे स्थिति में एक ही विकल्प खड़ा होता है जनता के सामने की वो अपने अपने पसंद के उम्मीदवार को चुने और स्पष्ट बहुमत ना होने की स्थिति में सरकार बनेगी तो वो "खिचड़ी-सरकार" होगी. खिचड़ी-सरकार की सबसे बड़ी कमी ये है की छोटी-छोटी पार्टिओं की अपेक्षाएं बड़ी-बड़ी हो जाती हैं, एकजुटता के नाम पर सरकार तो बनती है लेकिन उखाड़ते देर नहीं लगती. सरकार अविश्वास में आ जाती है, अल्पमत में हो जाती है और फिर चुनाव की नयी समस्या जन्म ले लेती है. कहने को तो चुनाव बहुत ही आसान शब्द लगता है लेकिन इसके पीछे के खर्चे सीधा सीधा जनता के जेब को फाड़ डालते हैं. फिर से आर्थिक अस्थिरता और फिर से महंगाई-डायन की लपलपाती हुयी जीभ के दर्शन के लिए जनता को तैयार हो जाना पड़ता है.

आज इस देश के नेताओं ने संसद और विधानसभा की धज्जी उड़ा कर रख दिया है, जनता के विश्वास को खो दिया है, चाहे वो कोई भी राजनितिक दल हो सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे नजर आ रहे हैं और जनता के सामने एक यक्ष प्रश्न मूंह बाए खड़ा होने वाला है की सरकार हो तो किसकी हो ?

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